Sunday, March 19, 2017

कहानी अनकहा इश्क - मृदुल कपिल

..... अनकहा इश्क
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  बस में गिनती की कुल 9 सवारी थीं , वैसे  तो कानपुर से लखनऊ के सफर में शायद ही कोई बस खाली मिले पर आज इत्तफाक से ‘किस्सा’ को जो बस मिली वो लभभग ख़ाली थी।  
अभी उसे बस में बैठे 5 मिनट ही हुए थे कि उसकी नज़र अपनी और बगल वाली सीट के बीच में फंसी डायरी पर पड़ी . गुलाब के कवर वाली हल्की लाल डायरी। " लावारिस  वस्तुओ को न छुए ," वाक्य जहन में होते हुए भी किस्सा ने वो डायरी उठा ली और इस उम्मीद से खोला की शायद इस डायरी के मालिक का कुछ नाम - पता मिल जाये।  
पर किस्सा गलत था , उसमें  न किसी का  नाम था और न मुकाम , उसमें थे तो किसी  के  दिल  से निकले कुछ अफ़साने, जिनमे  किस्सा डूबता चला  गया। 
डायरी के पहले पेज पर ही हल्की गुलाबी रंग से लिखा था 
1 .. वो पहली बार , जब हम मिले 
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तुम से मिले हुए गुज़र चुके है कई दिन , पर तुम्हारी दिलकश हंसी के कहकहे अब भी गूंज  रहे है मेरे इर्द गिर्द अपने हाथ की उन  उंगलियो को छूता हूँ कई बार , जिनको तुमने कुछ पलों के लिए अपने हांथो में थामा था।
 उस पहली ज़िंदा  मुलकात के  बाद मैंने जाना कि एक परत सी जम गयी थी  मेरे वजूद में , तुमने अपनी बातो से खुरच कर हटा दी मेरे वजूद से वो झूठी परत। 
तुम से मिल कर पहली बार लगा की मैं वो नही हूँ जो हूँ , और जो  हूँ , वो हूँ नही। 
तुम्हरी मुलाकात ने मुझे  बेवजह खुश रहने की वजह, बहुत सी वजहें दी है। 
 " क्यों बार बार , लगता है कोई दूर रह कर तकता है मुझे
  कोई आस पास आया तो नही , मेरे आस पास मेरा साया तो नही "
    
बस तेज़ी से भागती जा रही थी , और डायरी के पहले पन्नें का पहला हर्फ़ पढ़ कर किस्सा को लग रहा था किसी ने उसी का हाल '' दिल बयां किया है। 
 उसने कांपती उंगलियो से पन्ना पलटा। 
  खुद के वजूद से बेखबर किस्सा अगले पन्ने  की ओर  बढ़ गया। 

2  तुम्हारी कशमकश 
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एक दशक पहले तुमने बंद कर लिए थे अपने दिल के  सारे दरवाजे , खिड़कियां , झरोखे . और हर पल करती रही खुद की ही कैद की निगरानी .
लेकिन एक अजनबी ने सेंध कैसे लगा ली तुम नही जान सके .
जानते हो "ऐ मेरे हमदम " ऐसा कैसे हुआ ?
क्योंकि वो अजनबी कंही बाहर से नही आया , वो  छुपा हुआ था तुम में ही ,  वो हिस्सा है तुम्हारे ही वजूद का . 
तुम एक करने लगे हो खुद से प्यार , लेकिन तुम डरते हो अपनी ही ख़ुशी से. 
 तू नही जानते  मुझ अजनबी  के बारे में ज्यादा  कुछ , सिवाय इसके वो एक फिर से तुम्हे जीना  सीखा रहा है।  
 ...... कौन है ?
 .....  क्यों आ रहा है मेरे इतने पास ?
.....  कंही इसमें भी तो बाकियो की तरह कोई स्वार्थ तो नही ?
.....  क्या रिश्ता है मेरा इससे ?
....... कब तक है हमारा साथ ?
.......  क्यों पसंद है इसका साथ ?
........ कंही मै  गलत तो नही कर रही ?
 जानता हूँ तुम नही समझ पा रही कि गुजरे और आने वाले कल के बीच में ये कैसा आज आ गया है ?

 जानता हूँ ऐसे अनगिनत सवालो की धुंध ने जकड़ लिया है तुम्हारे पूरे वजूद को।  और इस सब का उत्तर खुद तुम्हारे पास है। 

 मुझ अजनबी पर भरोसा  करने से पहले करना होगा तुम्हे खुद पर भरोसा , दिलाना होगा खुद को ये एहसास की तुम्हारी पसंद नही हो  सकती है गलत। 

 किस्सा नही जानता  था की किसने और किसके लिए ये डायरी के पन्नो पर अपना " हाल  एक दिल "लिखा है , लेकिन वो ये जरूर जान गया था , ये कोई ऐसा अफ़साना  है जंहा दो रूहें अपने को रोकते- रोकते बहुत पास आ गयीं हैं। 
3 कुछ ख्वाब ... कुछ ख्वाहिशे .....
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 इंसान को खुश रहने के लिए क्या चाहिए होता है ?  
 बैंक खाते में बहुत सा रुपया पैसा   ...?
फ्रैंडलिस्ट में हजारो नाम  ?  
आपको या आपके विचारों को पसंद करने वाले कुछ लोग  ?
 भरा पूरा परिवार  ?  
समाज में आपकी इज्जत ?
क्या ये सब काफी है किसी को खुश रखने के लिए  

मुझे लगता है ये तब तक नाकाफी है जब तक आपके पास कोई ये बताने  वाला न हो कि  " तुम्हारा पेट निकल रहा है , अब जिम शुरू कर लो    ..."दांत देखे  है अपने कितने गंदे हो रहे है , जाओ इन्हे साफ़ कराओ ," तुम्हे पता है तुम , ' श " को '' बोलते हो  " ,कोई हो जो आपको बता सके की पिंक लड़कियो का रंग है .
शायद हमारी ख़ुशी तब तक अधूरी है जब तक आपके पास ऐसा कोई न हो जिस के सामने आप दिमाग से नही दिल से बोलो।  हम तब तक खुश नही हो सकते है जब तक हमारे पास कोई  ऐसा न हो जिसके सामने हम अपने चहरे पर लगाये गए सारे नकाब न उतार के जा सके। 
तुम्हारा साथ  मुझे वो सारे कारण देता है जिसकी वजह से मै हर दम खुश रह संकू।
कभी कभी लगता है की तुम्हारे साथ किसी नशे में इतना डूब जाऊँ कि न गुजरे कल की निशां हो न आने आने वाले कल की आहट , हो तो सिर्फ हम तुम और रुका हुआ वक्त,  और बस इतने में ही गुजर जाये ज़िंदगी।  
किसी बियाबान जंगल में हम साथ-साथ तब तक  भटकते रहे जब तक हमारे जिस्म थक एक दूसरे के आगोश में न झूल जाये।  जंगल के बीचों-बीच किसी पोखर का पानी पिए थामे हुए एक दूसरे का हाथो में हाथ। 
 रात के दूसरे पहर में सुनसान छत पर तुम्हारी गोद में लेटा हुआ तारों से भरे हुए असमान में  तलाश करू किसी अजनबी तारे को। 
 जब सब तरफ से  हार कर गिरने ही वाला हूँ तो तभी एहसास हो तुम्हरे  साथ का और मै उतर जाऊ फिर से ज़िंदगी की जंग में। 
 मुझे तुम से कुछ नही चाहिए , तुम भी नही   .... सिवाय इस एहसास के तुम ज़िंदगी के हर मोड़ पर हमारे साथ हो। 
सालो से बंद एक खूबसूरत किताब के हर्फ़-हर्फ़ को पढ़ना चाहता हूँ  मै। 
मुझे तुम्हारी ज़िंदगी में बस इतनी सी जगह चाहिए जीतनी जगह  तुम्हारे बायें पैर की तीसरी ऊँगली के नाख़ून पर नेल पेंट के पहले ब्रश के बाद बची रह जाती है .

 " तुम मुझे 'सागर' कहती हो...
गहरा कहती हो...
तो अब मुश्किल ये कि, " मैं गर डूबना चाहूँ/ तो कैसे.... ! और, किसमें.......!
इसी तलाश में कई बार तुम्हारी आँखों को पढ़ा है मैंने........."

हर  शब्द के साथ एक मंजर था , जो किस्सा की आँखों के सामने से गुजर रहा था , ..  जाने  वो कौन सा अजनबी था , जिसने अपनी रूह को  डायरी के पन्नो में उतार  दिया था , किस्सा पन्ना पलट के आगे के अफ़साने की ओर बढ़ गया। 

4 :  अनजान सफर 
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 मुकाम, कांरवा, मंजिल हमारे सफर में इन  की कोई अहमियत नही हैं  , हम बस साथ साथ चलना चाहते हैं , चलो करते है न एक " अनकहा इश्क " .
 हम  दोनों के दिलो ने एक साथ चलना स्वीकार कर लिया है, कब तक ? कँहा तक ? कैसे ? ये सारे सवाल  वक्त के हाथों में सौप देते हैं , जीते हैं आपने आज एक दूसरे के साथ , करते है वो सपने पूरे जो देखे है एक दूसरे की आँखों से। 
बता देते है दुनिया को " अनाम रिश्ता ' हर रिश्ते से जुदा और मजबूत होता है। 


"बन के तुम मेरे मुझको ''मुकम्मल'' कर दो
अधूरे-अधूरे अब हम ख़ुद को भी अच्छे नहीं लगते..!! "

बस लखनऊ पहुंच गयी थी, और  

इसके बाद के सरे पन्ने बिलकुल कोरे पड़े थे , कुछ पलो तक किस्सा उन  खाली  अन-लिखे डायरी के पन्नो को देखता रहा , उसने डायरी को वंही छोड़ दिया जंहा से उठाया था , इस उम्मीद से कि शायद उस डायरी का अनजान मालिक आ कर इन खाली पन्नों में ज़िंदगी की बाक़ी इबारत लिख दे। 

परिचय 
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18 जुलाई 1989 को जब मैंने रायबरेली ( उत्तर प्रदेश ) एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ तो तब  दुनियां भी शायद हम जैसी मासूम रही होगी . वक्त के साथ साथ मेरी और दुनियां दोनों की मासूमियत गुम होती गयी . और मै जैसी दुनियां  देखता गया उसे वैसे ही अपने अल्फाजो में ढालता गया .ग्रेजुएशन , मैनेजमेंट , वकालत पढने के साथ के साथ साथ छोटी बड़ी कम्पनियों के ख्वाब भी अपने बैग में भर कर बेचता रहा . अब पिछले कुछ सालो से एक बड़ी  हाऊसिंग  कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हूँ . और  अब भी ख्वाबो का कारोबार कर रहा हूँ . 
अपने कैरियर की शुरुवात देश की राजधानी से करने के बाद अब माँ –पापा के साथ स्थायी डेरा बसेरा कानपुर में है .  

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