Tuesday, March 31, 2015

अनिल सिन्दूर की कहानी - भाग्यशाली अम्मा



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भाग्यशाली अम्मा 

                  

मैं अपनी अम्मा के साथ उन दिनों नाना जी के यहां रहा करता था। लेकिन ये बात मैं नहीं जानता था। मैं नाना जी को दादा कह कर बुलाया करता था मेरे मामा भी इसी नाम से उन्हें बुलाते थे। अम्मा ज्यादा पढ़ी लिखी  नहीं थी उस समय दर्जा पांच तक पढ़ा कर ही विवाह कर दिया जाता था। अम्मा किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी इसीलिए उन्हांने नौकरी करने की इच्छा मेरे नाना यानि अपने दादा से रखी। दादा के रिश्ते में ऊची ंपहुंच वाले मैथली दद्दा कुछ लगते थे, जब यह बात दादा ने उनसे कही उन्होंने आश्वासन दिया कि वह जल्द ही कुछ करते हैं।
कुछ दिनों बाद अम्मा बीटीसी करने चली गयीं मैं नानी जिन्हें मैं बाई कहकर बुलाया करता था, के पास रह गया तब मेरी उम्र 3-4 साल की रही होगी। दिन बीतते गए अम्मा बीटीसी की टेªनिंग कर लौट आयीं। बीटीसी की टेªनिंग करने के कुछ ही दिनों बाद अम्मा की नौकरी लड़कियों के प्राइमरी स्कूल मै लग गयी। मैं जब पांच साल का हुआ मेरा भी दाखिला एक प्राइमरी स्कूल में करवा दिया गया।
मेरी अम्मा अब किसी पर बोझ नहीं हैं यह मैंने घर एवं बाहर वालों से कई बार कहते सुना मैं नहीं जानता था ऐसा क्यों कहा जाता है। दादा अपने लड़कों की तरह ही मुझे स्नेह दिया करते थे जिस तरह मामा की हथेली पर दस पैसे रखे जाते थे मेरी हथेली पर भी दस पैसे रख दिए जाते थे मै यही जानता था दादा ही मेरे पिता हैं। एक दिन मेरी गलतफहमी को तोड़ा गया पौर (बैठक) में टंगी एक तस्वीर की ओर इशारा कर बताया गया कि वो तुम्हारे पिता हैं जिन्हें तुम दादा कहते हो वो नाना हैं। तब मैने जाना था कि मैं अपने नाना के घर रहता हूॅं मेरा घर कहीं और है। उस दिन के बाद से दस पैसे के लिए खुलने वाली हथेली  उस अधिकार से नहीं खुली जिस तरह पहले खुला करती थी।
मेरी एक बड़ी बहिन भी है यह भी मुझे मालूम नहीं था। वह हमारी दादी के पास रहती थी। जब अम्मा गर्मी की छुट्टियों मे दादी के पास मुझे लेकर जाती तभी उससे मुलाकात होती। दादी ने तमाम कोशिश मेरे पिता को घर लाने को की लेकिन उनकी तमाम काशिश नाकाम हुई। थक हार कर उन्होंने तय किया कि मुझे और मेरी बहिन को पिता जी जहां रहते थे वहीं चल कर मिलवाया जाय। वह मुझे और बहिन को पिता जी के पास लेकर तमाम बार गयी। लेकिन जो उम्मीद दादी ने लगा रखी थी धूमिल होती गयी। उन्हें उम्मीद थी कि मेरा बेटा अपने बच्चों को प्यार जरूर देगा। मैं जब पहली बार पिता के पास गया मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं अपने उस पिता के पास आया हूॅं जो मुझसे दूर रहता है।
मै जब 8वीं कक्षा में पढ़ता तभी मेरी बहिन की शादी तय हो गयी सबको उम्मीद थी कि पिता जी बहिन की शादी मैं जरूर आयेंगे और कन्यादान अम्मा के साथ गॉंठ बांध कर लेंगे। शादी के दिन वह आये उन्होंने अम्मा के साथ गांठ बांध कर बहिन का कन्यादान लिया। सभी बेहद खुश थे विशेष कर मेरी दादी क्यों कि उनका भरोसा उनके बेटे ने तोड़ा नहीं था। पिता जी ने ही शादी का फोटो एलबम्ब तैयार करवाया था लेकिन उस एलबम्ब में लगी फोटो को कुछ इस तरह से खींचा गया था कि अम्मा कहीे दिखाई न दें। अम्मा को फोटो देखकर दुख हुआ था। वह बेवस थी, मूक दर्शक बनी अपनी अवहेलना होते देख रही थी। लेकिन समाज ने पिता जी को सराहा था कि लड़की का कन्यादान जो उन्होंने किया। अम्मा शान्त थीं सब कुछ जानकर भी अनजान, वह जानती थी कुछ भी कहना उनकों अपनो से दूर ही करेगा।
दो साल बाद दादी भी चल बसी। उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ रहा था। मैने ही दादी को मुखाग्नि दी थी, तमाम इन्तजार के बाद भी पिता जी समय पर घर नहीं पहुॅंच सके थे सभी ने पिता जी को भला-बुरा  कहा था। दादी का हम सभी को छोड़ कर चला जाना बड़ा धक्का था। जो जुड़ाव दादी के कारण पिता जी से था वो भी छूटता सा नजर आने लगा था। अम्मा और मेरी बहिन दोनो ही पिता जी से बेहद नाराज रहती थी। मुझसे जब भी कोई मेरे पिता के बारे में पूछता समझ नहीं आता क्या जबाब दूॅं, निरूत्तर हो जबाब खोजने की कोशिश करता रह जाता क्यों कि जब भी अम्मा से पिता जी के बारे में बात करता वो उदास हो जाती थी। जब मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर घर लौट आया तब तक अम्मा का भी कार्यकाल पूरा हो चुका था। मैं और अम्मा पैतृक कस्बे में दादी के बनबाये हुये मकान में रहने लगे। मैं लौट आया था चुनौतियों का सामना करने को, और समाज तैयार था घावों को कुरेदने को। मैने अपनी पहचान को ही ढाल बनाने की सोचकर अपने नाम के आगे पिता का नाम जोड़ लिया। नाम के इस परिवर्तन पर पिता जी बेहद नाराज हुये। उनकी नाराजगी जायज थी या नहीं मैं उस समय नहीं समझ पाया था। लेकिन तमाम सवालों से छुटकारा पाने को मैने उनकी बात को नहीं माना। अम्मा तटस्थ थीं एक नाम ही तो था जो पिता से एक बेटे को जोड़ता है। पिता की नाराजगी भी समय गुजरते दूर होती चली गयी। मेरे विवाह पर वो घर तो नहीं आये लेकिन बारात में साथ हो लिये थे। मैं खुश था लेकिन बारात लौटते ही वो भी रास्ते से ही लौट गये थे।
सेवानिवृत हो जाने के बाद अम्मा बीमार रहने लगी थी। मैं नौकरी को बाहर न जा सका क्यों कि अम्मा नहीं चाहती थीं कि मैं नौकरी करने घर से बाहर कहीं जाऊं उन्हें डर था कि कहीं बेटे को भी वो न खो दें। उनका यह फैसला मैने सिर माथे लिया। लेकिन र्दुभाग्य से मैं व्यापार में सफल नहीं हो सका। अम्मा दुखी थीं फिर भी उन्हें सन्तोष था कि उनका बेटा उनके पास था। व्यापार में सफल न होने पर एक समय ऐसा आया कि मुझे नौकरी करनी पड़ी। मेरी परिस्थितियों को देख अम्मा भी न रोक सकी। समय ने उन्हें बेहद कमजोर बना दिया था। पिता जी भी बीमार थे। काफी कमजोर हो गये थे। घर निकलना भी उन्होंने बन्द सा कर दिया था। लेकिन उनका लेखन का कार्य अनवरत जारी था क्यों कि अब उनका वही सहारा था। मै बीमारी के दौरान उनसे मिलने गया उनकी कसमसाहट सब कुछ बयान कर रहा था लेकिन वो लाचार थे। वो अपनी लाचारी छिपा नहीं सके। अम्मा की बीमारी के बारे में मैने उन्हें बताया वह सिर्फ इतना ही कह सके खयाल रखना।
अम्मा की बीमारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। वह बीमारी से लड़ने की क्षमता खो चुकी थीं। उन्हें होश ही नहीं रहता था कि वह बिस्तर पर सोयी हैं या जमीन पर। और एक दिन नवदुर्गा की अष्टमी की पूजा का प्रसाद खाने के बाद वह ऐसा सोयीे कि फिर न उठी।  पिता जी को अम्मा के मरने की खबर दी लेकिन वो न आ सके। घर पर जुटे समाज के महिलाओं तथा पुरुषों ने मेरी पीठ पर हाथ रख कहा कि तुम्हारी अम्मा बड़ी भाग्यशाली हैं वह पिता जी के रहते र्स्वगवासी हो गयीं। मै सोचता रह गया यह कैसा भाग्य जीवन भर र्दुभाग्यशाली होने का दंश भाग्यशाली में कैसे बदल गया।
परिचय

अनिल सिन्दूर
28 वर्षों से पत्रिकारिता क्षेत्र में , कथाकार , रचनाकार, सोशल एक्टिविष्ट , रंगमंच कलाकार , आकाशवाणी के नाटकों को आवाज़, खादी ग्रामौद्योग कमीशन बम्बई द्वारा शिल्पी पुरस्कार , सॉलिड वेस्ट मनेजमेंट  पर महत्वपूर्ण योगदान ,

संपर्क – मोब. 09415592770

निवास - कानपूर

Sunday, March 29, 2015

महेंद्र भीष्म की कहानी " मात "




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 लेखक का परिचय  -
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Saturday, March 28, 2015

ज्योतिरमई पन्त की कहानी " विदाई"

                                                                        " विदाई"
                 लगता है जैसे कल की ही बात हो.पड़ोस के घर में शादी का माहौल था .मेरी सहेली अल्पना का और मेरा साथ बचपन से अब तक चला आरहा था. मैं उसे दीदी कह कर ही बुलाती थी हालाँकि दोनों की उम्र में अंतर अधिक नहीं था पर थी तो वह मुझसे बड़ी ही .हर बात जब तक एक दूसरे को न बताएँ चैन ही नहीं आता था .पर कुछ ऐसा हुआ कि अब हम चाह कर भी साथ न रह सके .पढाई के बाद कुछ समय नौकरी फिर अपना घर बसाने में . मैं उससे दूर हो गई .कुछ सालों तक कभी पत्र लिखते रहे फिर वह भी नहीं .. पर ये घटना बीस -बाईस साल पुरानी तो होगी ही .घर में कितनी चहल पहल थी .कुछ ही दिन पहले अल्पना की सगाई हुई थी और महीने भर के अन्दर विवाह होना था .लड़के वाले कह गए थे कि शीघ्र ही सूचित करेंगे .इसलिए अभी से काम शुरू हो गए थे .घर की.. सफाई और रंग -रोगन . घर की महिलाएँ भी राशन पानी से लेकर गहने जेवर ,कपडे -साड़ियाँ,बेटी के लिए उसके ससुराल वालों के लिए और अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने में व्यस्त हो गई थी .
अल्पना अपनी पढाई पूरी कर लेना चाहती थी .बी .ए. फ़ाइनल में थी . साल के बाद शादी करना चाहती थीं .पर पिता जी की बीमारी के कारण जल्दी थी .पिता जी को कैंसर हो गया था .वे चाहते थे कि एक बेटी का विवाह उनके सामने हो जाये तो ठीक था .वे लोग अच्छे घराने से थे .उन्होंने दहेज़ लेने से भी इंकार किया था बहुत सीधे सादे तरीके से वे शादी करने को तैयार थे. इसी लिए पिताजी खुद भी तैयार हुए और उसे भी मना लिया गया .बेटे की चाह तीन बेटियों के बाद पूरी हो सकी थी .वह अभी एकदम छोटा था .उनके बाद घर को सम्हालने वाला और कोई था भी नहीं .बीमारी के इलाज में संचित धन भी व्यय हो रहा था .अतः एक बेटी का कन्यादान हो जाये तो...एक जिम्मेदारी का निर्वाह हो जायेगा .दोनों बेटियाँ और बेटा तो अभी स्कूल कालेज में ही थे .
पर जैसा सोच रहे थे वैसा हुआ नहीं .ईश्वर की कुछ और ही मर्ज़ी थी .अभी शुभ दिन आया भी नहीं था कि दुर्भाग्य की काली घटायें घिर आईं.पिता जी अचानक सबको छोड़ कर चले गए .सारी खुशियाँ सारे मंसूबे मन में ही रह गए .घर में उदासी का साम्राज्य हो गया .माँ तो किंकर्तव्य विमूढ़ सी हो गई .लेकिन ऐसे कब तक चलता दुनिया की रीत यही है जाने वाले की यादें मन में लिए आगे बढ़ना ही पड़ता है .उधर लड़के वाले भी बहुत दुखी हुए पर उन्होंने माँ से कहा भी कि महीने छह महीने बाद एकदम सीधी रीति- विधान को निभाकर विवाह करने को तैयार हैं .किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होगी .जो होना था हो चुका उसे तो बदल नहीं सकते ..पर जो कुछ करने योग्य है उसे करें तो ठीक रहेगा .
पर माँ तैयार नहीं हुई .एक तो साल भर पहले कोई शुभकार्य वे नहीं कर पाएंगी फिर कन्यादान कैसे करेंगी ?दूसरी बात यह भी थी कि पिता जी के ऑफिस के नियम के अनुसार परिवार के किसी व्यक्ति को नौकरी दी जा सकती थी .. योग्यता के आधार पर अल्पना को ही यह अवसर मिल सकता था कुछ महीनों के बाद वह गेजुएट हो जाती .बाकी लोगों की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी .अब सबका सहारा दीदी को ही बनना था .हालाँकि उस की होने वाली सास ने कहा था ..अगर ऐसी बात है तो अल्पना को नौकरी करने और पूरी तनख्वाह अपने घर में देने में उन्हें कोई एतराज़ नहीं आखि र अपने ही अपनों के काम नहीं आएंगे तो और कौन आएगा ?पर बात बनी नहीं .अब सवाल यह था की अगर अल्पना ही घर संभालेंगी तो वे कब तक इंतजार करें ?अधिक से अधिक एक वर्ष ...इसमें कौन सी मदद होगी ?
तब अल्पना ने ही हिम्मत जुटाई और इस रिश्ते को नकार ने की बात कही .अब उसे अपने भाई बहनों की जिम्मेदारी उठानी है तो दूसरा परिवार क्यों परेशान हो .जब तक और बहने स्वावलंबी नहीं हो जातीं तब तक तो उसे यहीं रहना होगा .अतः उसी ने जतिन से स्वयं बात करनी चाही .
लगभग साल भर पहले ही जतिन से उसके रिश्ते की बात चली थी.और तय हुआ था कि पहले वे एक दूसरे से मिल लें .अपने स्वभाव ,तौर तरीके, भावी आकांक्षाएँ जान समझ लें . तभी आगे जन्मकुंडली आदि देखी जाएगी .अतः वे दोनों जब पहली बार मिले ......तभी उन्होंने एक दूसरे को पसंद कर लिया और विवाह तय हो गया.इस बीच दोनों कई बार और मिल चुके थे .दीदी ने तो उन्हें अपना जीवन साथी मान ही लिया था .लगता था प्रथम दर्शन में ही प्रेम हो गया था. जतिन को दीदी ने मना भी लिया था कि ग्रेजुएशन के बाद विवाह हो .पर पिता जी की अचानक बढती बीमारी से सब बदल गया था .और अब .................
उसने ने जतिन से बात की और वह मान गया ..दो तीन साल में बहने इस योग्य हो ही जाएँगी . वे घर सँभाल लेंगी तब तक वह प्रतीक्षा करेगा .....
पर अल्पना दीदी पहले बहनों और भाई की पढाई फिर उनकी नौकरी लगने और घर बसने तक इस कदर उलझ गई की साल बीतते गए ..उधर जतिन की माँ बेटे को समझाते -समझाते हार गई .जतिन भी विदेश चला गया .अल्पना ने भाई बहनों के जीवन सँवारने में अपना जीवन लगा दिया था .अब सब अपने अपनें में व्यस्त हो गए .उस की उन्हें न तो कोई परवाह रही न प्यार .जब तक ज़रुरत थी उसके पास आते .अब किसी का कोई मतलब नहीं था .सभी अलग शहरों में चले गए थे वह अभी तक पिता जी के ऑफिस में कार्य रत थी .माँ भाई के साथ रहती थी .आरम्भ के कुछ वर्षों तक माँ उसकी चिंता भी करती थी और सराहना भी करती कि उसी के सहारे से सब रह पाए .पर बाद में सभी का रुख बदलने लगा.बहनों की शादी हो गई .वे अपने घर में सुखी थी .भाई की भी शादी एक अमीर घर की लड़की से हो गई.उसे अल्पना के त्याग और संघर्ष से कोई लेना देना नहीं था .माँ भी घर की शांति बनी रहे इसलिए बेटे -बहू का साथ देने लगी .अब उसे अपना घर बसा लेना ..इस चाहिए.....जब इस तरह की बातें होतीं तो उनमें माँ भी शामिल हो जाती थी ,पर इससे आगे कोई बात बढ़ती नहीं थी. यह बात उसके मन को सालती थी. वह स्वयं तो जतिन के पास नहीं जा सकती थी .पहले जब जतिन कई बार आया भी तब माँ ने कभी यह नहीं कहा ......अब सब ठीक है तो दोनों अपना घर बसायें .बल्कि कुछ न कुछ और जिम्मेदारियों का आभास दिला देती .अब वह कोई प्रिय सदस्य की तरह नहीं मानी जाती वरन वह तो बैंक के ए.टी .एम.मशीन बन चुकी थी .अब वह अकेली जान है ,खर्च ही क्या है..? जिसे जब जितनी ज़रुरत हो पैसे माँग ले..अब शायद यही एक रिश्ता बचा था . घर की किसी बात में उसे शामिल नहीं किया जाता .कहीं से कोई उपहार आदि मिलते तो उसे नहीं दिए जाते कि उसे इनकी क्या ज़रुरत है न घर न गृहस्थी .............तब उसका मन उद्वेलित हो उठता ..जिनके लिए अपनी गृहस्थी शुरू ही न होने दी .और जिन्हें अपना समझा वही अपने घर का हिस्सा उसे नहीं समझते .क्या यह उसी का दोष है ?सबको स्वावलंबी बनाके तो वह अपना घर बसा ही सकती थी ..... पर न जाने किस बंधन में बंधी रह गई .
कई वर्षों तक अल्पना कभी अपने ख्वाबों में डूबती भी तो फिर सजग हो जाती .अब ज्यों ज्यों उम्र बढ़ रही थी उसमें निराशा भी जाग रही थी .उसे यह बात और दुखी करने लगी कि जतिन का जीवन उसकी वज़ह से ख़राब हुआ .वह अपनी माँ की बात नहीं मान पाया .काश उसने उसे घर बसाने दिया होता .उसकी तो मजबूरी थी पर अपने साथ उसका संसार बिगाड़ने का उसे क्या हक था ?
इस बीच एक दिन जतिन की माँ से उसकी भेंट हो गई .अपने बेटे के साथ उन्होंने अल्पना की भी चिंता जताई .कहने लगी ...बेटी अब तो तुम्हारे फ़र्ज़ पूरे हो गए हैं पर सच कहूँ तो एक फ़र्ज़ बाकी है.जिस जतिन को तुमने अपना मान लिया था उसने भी हर कदम पर तुम्हारा साथ निभाया है .मेरी और अपने पापा की बात तक वह टाल देता है .हम दोनों भी अब बूढ़े हो गए हैं .और एक आस मन की मन में ही रह गई .काश तुमने तब बात मानी होती तो भी तुम अपने परिवार का साथ दे सकती थीं .अब तो अपने बारे में सोचो... अगर नहीं तो उस जतिन का ख्याल करो जो अब तक तुम्हारी आस में बैठा है .अल्पना कुछ बोल ही नहीं पाई. वह अपराध बोध से ग्रसित हुई जा रही थी .जतिन की माँ के आँसू उसे विचलित कर गए .उसे वह इतनी अपनी लगीं उसने स्वीकार किया कि जो गलती उसने की है उसकी सजा उसे मिलनी चाहिए वह तैयार है ...पर उसके घरवाले .....तैयार हों न हों ...वे बोली बेटी बुरा न मानना मै उनलोगों से भी मिल चुकी हूँ , वे कुछ करें न करें अब .मैं ही बात कर लूँगी .तुम अब स्वतंत्र हो. तुमने तन मन से अपना धर्म पूरा किया है ..इस बार जतिन आ रहा है ..अब या तो उसे अपने साथ पावन बंधन में बाँध लो या फिर मुक्त कर दो ...उसे भी तो अपने माँ पिता जी के प्रति कुछ कर्तव्य निभाने दो .......अल्पना ने कहा....` जैसा आप कहें माँ .`.......
.. अगले पंद्रह दिन बाद .......शहर के मंदिर में अल्पना और जतिन का विवाह है और उसके बाद एक बड़े होटल में पार्टी .उसके परिवार को जतिन की माँ ने .ही ...बताया .अगले दिन सुबह ही उसकी माँ अल्पना के पास पहुँच गई .इतने वर्षों से अपनी बेटी के जीवन में यह शुभ दिन देखने की चाह लिए थीं पर कभी कुछ जता नहीं सकी ....छोटे भाई बहनों को डर था. दीदी के जाने से उनके अरमान अधूरे रह जाते.उनके दबाव में वे अल्पना के लिए कुछ कर ही न पाती..मन ही मन चाहती थीं अल्पना ही कुछ कदम बढ़ा ले ...पर ऐसा हुआ ही नहीं .अल्पना आदर्शों की डोर में बँधती चली गई .अगर जतिन की माँ न आती तो ... .अपने सारे गहने उसे देते हुए रुंधे गले से बोली ..बेटी ! तूने तो सब को माँ बनकर पाला.मैं तेरी कर्जदार हूँ .बाकी परिवार के लोगों को इस उम्र में उसका विवाह .........कुछ अच्छा नहीं लगा . जतिन की माँ के गले लगकर सुबकते हुए बोली `` आप ही इसकी माँ हैं और सास भी .इसका ख्याल आपको आया ``.अल्पना की विदाई के बाद माँ भी लौट गई उनके चेहरे पर सांत्वना के भाव उमड़ रहे थे .जतिन के माँ -पिता जी अपनी बहू और बेटे को साथ लेकर बहुत खुश हो कर घर में प्रवेश कर रहे थे.... आखिर इतनी लम्बी प्रतीक्षा के बाद उनके सपने साकार हो रहे थे ....... !!!

लेखिका का परिचय
ज्योतिरमई पन्त
 साहित्यकार , कहानी लेखन में दक्षता ,
पन्त नगर उत्तराखण्ड निवासी
वर्तमान निवास - गुडगाँव