Tuesday, February 16, 2016

पेशावर एक्सप्रेस - कृशन चंदर (जन्म शताब्दी पर विशेष)

पेशावर एक्सप्रेस
                                                                      कृशन चंदर
जब मैं पेशावर से चली तो मैंने छकाछक इतमीनान का सांस ली । मेरे डिब्बों
में ज्यादातर हिंदू लोग बैठे हुए थे । ये लोग पेशावर से, होती मरदान से,
कोहाट से, चारसदा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नू, नौशहरा, मानसहरा
से आए थे और पाकिस्तान में जान व माल को महिफ़ूज़ ना पा कर हिंदुसतान का
रुख कर रहे थे, स्टेशन पर ज़बरदसत पहरा था और फ़ौजवाले बड़ी चौकसी से
काम कर रहे थे। उन लोगों को जो पाकिस्तान में ‘पनाहगुज़ीन’ और हिन्दुस्तान में
शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन की सांस ना आयी जब तक मैंने पंजाब की
प्रणयसिक्त धरती की तरफ़ पैर न बढ़ाये ! ये लोग शक्ल और सूरत से बिल्कुल
पठान मलूम होते थे ! गोरे-चिट्टे, मज़बूत हाथ-पाँव, सर पर कुलाह और लुंगी,
और जिस्म पर कमीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी कभी
निहाइत करख्त किस्म की पंजाबी में बातचीत करते थे। इनकी हिफ़ाज़त के
लिए हर डिब्बे मैं दो सिपाही बंदूकें ले कर खड़े थे। लम्बे चौड़े बलोची सिपाही अपनी
पगडिओं के पीछे मोर के छत की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाये हुए हाथ मैं
नयी राइफ़लें लिए हुए इन हिन्दू पठानों और उन के बीवी-बच्चों की तरफ़ मुस्करा-
मुस्कराकर  देखते  थे जो  भय के कारण उस धरती से भागे जा रहे थे   जहाँ
वो हजारों साल से रहते आए थे: जिसकी पथरीली  सरज़मीन  से  उन्होंने
शक्ति प्रदान  की  थी । जिसके  बर्फ जैसे ठंडे झरनों से उन्होंने पानी
पिया था और जिसके सुन्दर बागों से उन्होंने अंगूर का रस पिया था !  आज
यह  मात्रभूमि सरासर बेगानी हो गयी थी और उसने अपने मेहरबान सीने के
किबाड़ उन पर बंद कर लिए  थे  और वह एक नये देश के तपते हुए मैदानों की
कल्पना दिल में लिए अनिच्छापूर्वक यहाँ से विदा हो  रहे थे।
इसकी ख़ुशी जरुर थी कि उनकी जानें बच गई थीं, उनका बहुत सा माल-मता और
उनकी बहुओं, बेटियों, माँओं और बीबियों की आबरू महफ़ूज़ थी, लेकिन
उन का दिल रो रहा था और आंखें सरहद के पथरीले सीने पर यूं गड़ी हुई थीं
गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हों और उसके वात्सल्यपूर्ण  ममता के
फब्बारे से पूछना चाहती हों, 'बोल मां आज किस जुर्म की सज़ा में तूने अपने
बेटों को घर से निकाल दिया है; अपनी बहुओं उस खुबसूरत आँगन से महरूम किया
 है  जहां वो सुहाग की रानियाँ बनी बैठी थीं । अपनी अलबेली कुंआरियों को
जो अंगूर की बेल की तरह  तेरी  छाती से लिपट रही थीं, झिंझोड़कर अलग कर
दिया है ? किस लिए आज ये देश विदेश हो गया  है ।‘  मैं चलती जा रही थी
और डिब्बों में बैठी मानवता अपने देश की पहाड़ियों और उसकी ऊंची-ऊंची
चट्टानों, उसकी हरियालियों, उसकी हरी भरी तराइयों, कुंजों और बागों की
तरफ यों देख रही थीं जैसे निगाह हर पल रुक जाये ! और खुद मुझे ऐसा मालूम
हुआ कि इस महान दुःख और पीड़ा के बोझ से मेरे कदम भरी हुए जा रहे हैं और
रेल की पटरी मुझे जबाब दिए जा रही है !  हसन अब्दाल तक सब लोग यूँ ही
रंजीदा, उदास, निराशा और विपन्नता की मूर्ति बने बैठे रहे । हसन अब्दाल
के स्टेशन पर बहुत से सिख आये हुए
थे - पंजा साहब से लंबी-लंबी किरपानें लीये चेहरों पर हवाईयां उड़ती हुई, बाल-
बच्चे सहमे-सहमे से, ऐसा मालूम होता था कि अपनी तलवार के घाव से यह लोग
ख़ुद मर जाएंगे । डिब्बों में पंहुच कर इन लोगों ने इत्मिनान की साँस ली  और फिर
दूसरी सरहद के हिंदू और सिख पठानों में बातचीत शुरू हो गयी ! किसी का घर बार
जल गया था कोई सिर्फ़ एक कमीज़ और शलवार में भागा था, किसी के पाँव में
जूती न थी और कोई इतना हुशियार था कि आपने घर की टूटी चारपाई तक उठा लाया
था जिन लोगों का वाकई बहुत नुकसान हुआ था वो लोग गुमसुम बैठे हुए थे।
-ख़ामोश 'चुपचाप और जिसके पास कभी कुछ न हुआ था वह आपनी लाखों की
जायदाद  खोने  का  ग़म  कर  रहा  था  और  दूसरों  को  आपने  काल्पनिक
ऐश्वर्य के  किस्से सुनाकर उन पर रोब डाल रहा था और मुसलमानों को गाली दे
रहा था ।  बलोची सिपाही बड़ी शान के साथ दरवाजों पर राइफ़लें  थामें  खड़े
 थे  और  कभी-कभी  एक दूसरे  की  तरफ़  कनखियों  से  देख कर  मुस्करा
उठते ।

तक्षशिला के स्टेशन पर मुझे बहुत अरसे तक खड़ा रहना पड़ा !  न जाने किसका

इंतज़ार था !  शायद
आसपास के गाँव  से हिंदू शरणार्थी आ रहे थे, जब गार्ड ने सटेशन मास्टर से
बार-बार पूछा तो उस ने कहा, जब तक हिन्दू शरणार्थियो का जत्था न आ जायेगा
ये  गाड़ी  आगे  न  जा सकेगी । अब लोंगों ने अपना खाने-पीने का सामान
खोला और खाने लगे ! सहमे-सहमे बच्चे कहकहे लगाने लगे और मासूम कुंआरियां
दरीचों से बाहर झाँकने लगीं और बड़े बूढ़े हुक्का गुड़गुड़ाने लगे ! थोड़ी देर
बाद जोर शोर से शोर सुनाई दिया और ढोलों के पीटने की आवाजें सुनाई देने
लगीं ! शरणार्थियो का जत्था दूर से आ रहा था और नारे लगा रहा था ! वक़्त
गुजरता गया ! जत्था करीब आता गया ! ढोलों की आवाज़ कानों में आयी और लोगों
ने अपने सर खिड़कियों से पीछे हटा लिए !

ये हिंदूओं का जत्था था जो आसपास के गाँव से आ रहा था, गाँव के मुसलमान लोग

इसे आपनी हिफ़ाज़त में ला रहे थे। चुनांचे हर एक मुसलमान ने एक काफ़िर
की,जिसने जान बचाकर भागने की कोशिश की थी, लाश अपने कंधे पर उठा रखी थी !
दो सौ लाशें थीं। मजमे ने ये लाशें निहायत इत्मिनान  से स्टेशन पहुंचकर
बलोची दस्ते के सुपुर्द की और कहा कि इन जानेवालों को निहायत हिफ़ाज़त
से हिन्दुस्तान की सरहद पर ले जाय, बलोची सिपाहियों ने सहर्ष इस बात का
जिम्मा लिया और हर डिब्बे में दस-पंद्रह लाशें रख दी गयीं ! इसके बाद
मजमे ने हवा में फायर किया और गाड़ी चलाने के लिए स्टेशन-मास्टर को हुक्म
दिया !

मैं चलने लगी थी कि फिर मुझे रोक दिया गया और मजमे के सरग़ने

ने हिंदू शरणार्थियों से किहा कि दो सौ आदमिओं के चले जाने से उनके
गाँव वीरान हो जाएंगे और उनकी तिजारत तबाह हो जाएगी इसलिए वह गाड़ी मैं
से दो सौ आदमी उतार कर अपने गाँव ले जायेंगे चाहे कुछ भी हो । वह अपने
मुल्क को यूं बरबाद होता हुआ नहीं देख सकते । इस पर बलोची सिपाहिओं ने उनकी
बुद्धि की प्रशंसा की और उनके देश प्रेम को सराहा । उन्होंने हर डिब्बे
से कुछ आदमी निकल कर मजमे के हवाले किये । पूरे दो सौ आदमी निकाले गए ।
एक कम न एक ज्यादा ।
"लाईन लगाओ काफिरों," सरग़ने ने कहा । वह अपने इलाके का सबसे बड़ा
जागीरदार था और अपने लहू की रवानी में जिहाद की गूंज सुन रहा था ।

काफ़िर पत्थर के बुत बने खड़े थे । मजमें के लोगों ने इन्हें उठा-उठा कर लाईन

में खड़ा किया । दो सौ आदमी, दो सौ ज़िंदा लाशें, चिहरे उतरे हुए, आँख
फिजा में तीरों बारिश-सी महसूस करती हुई । पहल बलोची सिपाहिओं ने की ।
पन्द्रह  आदमी  फायरिंग  से  गिर  गए । यह  तक्षशिला का स्टेशन   था ।

बीस और  आदमी  गिर गये।


यहां एशिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी  थी  और  लाखों  विद्यार्थी  इस

सभ्यता और संस्कृति के केंद्र में विद्यापर्जन करते थे ।

 पचास  और  मारे  गए।


तक्षशिला के अजायबघर में इतनी ख़ूबसूरत मूर्तियाँ थीं,  इतने  अपरूप

आभूषण, मूर्तिकला के अद्वितीय उदाहरण, पुरानी सभ्यता के झिलमिलाते हुए
चिराग !

 पृष्ठभूमि में सरकोप  का महल था और केलोन का एम्फीथियेटर और मीलों तक

फैले हुए विराट नगर के खंडहर ! तक्षशिला के अतीत वैभव और महत्ता के अनुपम
प्रतीक !

 तीस और मारे  गए।


यहां  कनिष्क  ने  हकूमत की  थी और  लोगों  को  अमन  और चैन हुस्न और

दौलत  से  मालामाल  किया  था ।

पचीस  और  मारे  गए।


यहां  बुद्ध भगवान का अहिंसा का सन्देश गूंजा था, यहाँ भिक्षुओं ने

शान्ति का मार्ग दिखलाया था !

अब आख़री  गिरोह  की  मौत आ  गई  थी ।


यहां पहली बार हिन्दुस्तान की सरहद पर इस्लाम का झंडा  लहराया था, समता,

भाईचारे और इन्सानियत का झंडा ।

सब मर गए। अल्हा हो अकबर ! फ़र्श ख़ून से लाल थी और जब मैं प्लेटफार्म से

निकली तो मेरे पाँव रेल की पटरिओं से फिसले जाते थे जैसे मैं अभी गिर
जाऊँगी और गिरकर बाकि बचे हुए मुसाफिरों को भी ख़त्म कर डालूँगी !

हर डिब्बे में मौत आ गई थी और लाशें दरम्यान में रखदी गयी थीं और

ज़िंदा लाशों का हजूम चारों तरफ़ था और बलोची सिपाही मुस्करा रहे थे कहीं
कोई बच्चा रोने लगा, किसी बूढी मां ने सिसकी ली। किसी के लुटे हुए सुहाग
ने  आह  की  और चीखती  चिल्लाती  रावलपिंडी  के  प्लेटफार्म  पर  आ  खड़ी  हुई ।

यहां से कोई शरणार्थी गाड़ी में सवार ना हुआ। एक डिब्बे में चंद मुसलमान

नौजवान पंद्रह-बीस
 बुर्कापोश औरतों को ले कर सवार हुए । हर नौजवान राइफ़ल लगाये हुए था । एक
डिब्बे  मैं  बहुत  सा  सामाने-जंग  लादा  गया  मशीनगंनें,  और  कारतूस,
पिस्तौल और राइफ़लें । झेलम और गूजरख़ां के दरम्यानी  इलाके में मुझे
जंजीर खींच कर खड़ा कर दिया गया । मैं  रुक  गई ।  मुस्लिम नौजवान गाड़ी से
उतरने लगे ! बुर्कापोश औरतों ने शोर मचाना शुरू कर किया । ‘हम हिंदू हैं।
हम सिख हैं। हमें जबरदस्ती लिए जा रहे हैं। उन्होंने बुर्के फाड़ डाले और
चिल्लाने लगी । नौजवान  मुसलमान  हंसते  हुए  उन्हें बाहर  घसीट  कर
गाड़ी  से  निकाल  लाये ।

हां ये हिंदू  औरतें  हैं, हम  इन्हें  रावलपिंडी से उनके आरामदेह घरों,

इनके ख़ुशहाल  घरानों, इनके इज्जतदार  मां  बाप  से  छीन  कर  लाये  हैं
। हम इनके साथ जो जी में आएगा, करेंगे ! अगर किसी में हिम्मत है तो
इन्हें हमसे छीन ले जाये ।

सरहद के  दो  नौजवान  हिंदू  पठान  छलांग  मार  कर  गाड़ी से  उतर  गये !

बलोची  सिपाहियोंने निहायत इत्मिनान से फ़ायर कर के उन्हें ख़त्मकर दिया ।
पन्द्रह-बीस नौजवान और निकले ! उन्हें मुसल्लह मुसलमानों के गिरोह ने
ख़त्म कर दिया ! दरअसल गोश्त की दीवार लोहे की गोली का मुकाबला
नहीं कर सकती । मुसलमान नौजवान हिंदू औरतों को घसीट कर जंगल में ले गये और मैं मुहँ
छिपा कर वहां से भागी । काला, ख़ौफ़नाक धूंआं मेरे मूंह से निकल रहा था ।
 जैसे सृष्टि पर कालिमा छा गयी हो और साँस मेरे सीने में यों उलझने लगी
जैसे यह लोहे की छाती अभी फट जायेगी और और अन्दर भड़कते हुए लाल-लाल शोले
इस जंगल को जलाकर खाक कर डालेंगे जो इस वक़्त मेरे आगे-पीछे फैला हुआ था
और जिसने उन पन्द्रह औंरतों को निगल लिया था !

लाला मूसा के करीब लाशों से इतनी घ्रुटित सड़ाद निकलने लगी कि बलोची

सिपाही उन्हें बाहर
फेंकने पर मजबूर हो गए। वह हाथ के इशारे से एक आदमी को बुलाते और उस से
कहते, उस की लाश को उठा कर यहां लाओ, दरवाज़े पर और जब वह आदमी एक
लाश उठा कर दरवाज़े पर लाता तो वह उसे गाड़ी से बाहर धक्का दे देते । थोड़ी
देर में सब लाशें एक एक हमराही के साथ बाहर फेक दी गयीं और डिब्बों में आदमी
कम  हो  जाने  से  टांगें  फैलाने  की  जगह  हो  गयी ।

लालामूसा गुज़र गया और वज़ीराबाद आ गया । वज़ीराबाद का मशहूर जंकशन,

वज़ीराबाद का मशहूर
शहिर, जहां हिन्दुस्तान-भर के लिए छुरियां और चाकू तैयार होते हैं । वज़ीराबाद
जहां के हिंदू और मुसलमान सदियों से बैसाखी का मेला बड़ी धूमधाम से मनाते हैं
और उस की खुशियों में इकठ्ठे हिस्सा लेते हैं वज़ीराबाद का स्टेशन लाशों से
पटा हुआ था । लाशों का मेला ! शहर में धुआं उठ रहा था और स्टेशन के करीब
अंग्रेजी बैण्ड की धुन सुनाई दे रही थी और हुजूम की पुरजोर तालियोंऔर
कहकहों की आवाजें गूंज रही थी ! चंद
मिनटों में हजूम सटेशन पर आ गया था । आगे-आगे देहाती नाचते-गाते आ
रहे थे और उन के पीछे नंगी औरतों का हजूम था !  मादरज़ात नंगी औरतें !
बूढी, नौजवान, बच्चियाँ, दादीयां और पोतीयां, माएं और बहुएं और बेटीयां,
कुवाँरियाँ और गर्भवती स्त्रियाँ, नाचते गाते हुए आदमियों के जत्थे में थीं । औरतें
हिंदू और सिख थीं और मर्द मुसलमान थे और दोनों ने मिल कर अजीब बैसाखी
मनायी थी ! औरतों के बाल खुले हुए थे। उन के जिस्मों पर जख्मों के निशान
थे और वह इस तरह सीधी तन कर चल रही थीं जैसे हज़ारों कपड़ों में उन के
जिस्म छुपे हों, जैसे उनकी आत्मा पर शांत मृत्यु के भारी साये चढ गए हों

उन की दृष्टि का तेज द्रोपदी को भी शर्मा रहा था और होंठ दांतों के अंदर
यूं भिंचे हुए थे गोया किसी लावे का मुँह बंद किये हैं । शायद अभी ये
लावा फट पड़ेगा और अपनी आग से जहन्नम का नमूना बना देगा ।
मजमें से आवाज़ आयी । पाकिस्तान जिंदाबाद ! इस्लाम जिंदाबाद ! कायदे आज़म
ज़िंदाबाद ।   नाचते-थिरकतेहुए कदम परे हट गये और अब ये अजीबो ग़रीब हजूम
डिब्बों के सामने आ गया ! डिब्बों में बैठी हुई औरतों ने घूँघट काढ लिए
और डिब्बों की खिड़कियाँ फटाफट बंद होने लगीं ।
बलोची सिपाहियों  ने  कहा । खिड़कीयां  मत  बंद  करो,  हवा रुकती है !
लेकिन  खिड़कियाँ  बंद  होती गयीं  । बलोची  सिपाहियों  ने  बंदूकें तान
लीं – ठाएं-ठाएं  फिर  भी खिड़कियाँ बंद होती गयीं और फिर डिब्बे  में एक
खिड़की भी न खुली रही ।  हां,  कुछ  शरणार्थी ज़रूर  मर गए थे। नंगी
औरतें  शरणार्थियों  के  साथ  बैठा  दी  गयीं और  मैं  इस्लाम ज़िंदाबाद
और  क़ायदे  आज़म  ज़िंदाबाद  के  नारों  के साथ  रुख़सत  हुई ।
गाड़ी में बैठा हुआ एक बच्चा लुढकता-लुढ़कता एकबूढी दादी के पास चला गया
और उससे पूछने लगा ‘मां’ तुम नहा के आयी हो ?
दादी ने अपने आंसुओं को रोकते हुए कहा । ‘हां नंन्हे, आज मुझे मेरे वतन
के बेटों ने नहलाया है ।
‘तुम्हारे  कपड़े  कहां  है  माँ ?’
‘उन  पर  मेरे सुहाग  के  ख़ून  के  छींटे  थे !  बेटा  वह  लोग  उन्हें
धोने के लिए ले गये  हैं ।‘
 दो नंगी  लड़किओं  ने  गाड़ी  से  छलांग  लगा  दी  और  मैं  चीखती
चिल्लाती  आगे  भागी  और लाहौर पहुंच कर दम लिया ।
मुझे एक नंबर प्लेटफार्म पर खड़ा किया गया । नंबर दो प्लेटफार्म पर दूसरी
गाड़ी खड़ी थी । यह अमृतसर से आई थी !  इसमें हिन्दुस्तान के मुसलमान
शरणार्थी बंद थे । थोड़ी देर के बाद मुस्लिम ख़िदमतगार मेरे डिब्बों की
तलाशी लेने लगे ।  ज़ेवर, नकदी और दूसरा कीमती सामान जाने वालों  से ले
लिया गया । इसके बाद चार सौ आदमी डिब्बों से निकाल कर स्टेशन पर खड़े
किये गए ।
ये बलि के बकरे थे क्योंकि अभी-अभी नंबर दो प्लेटफार्म पर जो मुस्लिम
शरणार्थियों की गाड़ी आकर रुकी थी उस में चार सौ मुसलमान मुसाफ़िर कम थे
और पचास मुसलिम औरतें अग़वा कर ली गई थीं इस लिए यहां पर भी पचास औरतें
चुन-चुन कर निकाल ली गई और चार सौ हिन्दुस्तान मुसाफिरों का क़त्ल किया
गया ताकि  हिन्दुस्तान  और पाकिस्तान  में आबादी  का पलड़ा बराबर  रहे ।

मुस्लिम खिदमतगारों ने एक घेरा बना रखा था और छुरे उनके हाथ में थे !

घेरे में बारी-बारी से एक शरणार्थी उनके छुरे की जद में आता था और बड़ी
तेजी और सफ़ाई से हलाल कर दिया जाता था ! चंद मिनटों में चार-सौ आदमी ख़त्म
कर दिए गए ! और फिर मैं आगे चली ! अब मुझे अब मुझे अपने जिस्म के
जर्रे-जर्रे से घिन आने लगी थी ! इस कदर पलीद और बदबूदार महसूस कर रही थी
मैं जैसे मुझे शैतान ने सीधे जहन्नम से धक्का देकर पंजाब में भेज दिया हो
!

अटारी पहुँचकर फ़िज़ा बदल-सी गयी ! मुगलपुरे ही से बलोची सिपाही बदल दिए गए

थे और उनकी जगह डोगरों और सिख सिपाहियों ने ले ली थी ! लेकिन अटारी पहुँच
कर हिन्दू शरणार्थी ने मुसलमानों की इतनी लाशें देखीं किउनके दिल ख़ुशी से
बाग-बाग हो गए !

आज़ाद हिन्दुस्तान की सरहद आ गयी थी वरना इतना सुन्दर दृश्य किस तरह देखने

को मिलता ! और जब मैं अमृतसर स्टेशन पहुंची तो सिखों के जयकारों ने
जमीन-आसमान को हिला दिया ! यहाँ भी मुसलमानों की लाशों के ढेर के ढेर थे
और हिन्दू जाट और सिख हर डिब्बे में झाँककर पूछते थे ‘कोई शिकार है ?’
मतलब यह है कि कोई मुसलमान है ? एक डिब्बे में चार हिन्दू ब्राह्मण स्वर
हुए सर घुटा हुआ, लम्बी चोटी, राम-नाम की धोती बांधे हरद्वार का सफ़र कर
रहे थे ! यहाँ पर डिब्बे में आठ-दस सिख और जाट बैठ गए ! यह लोग रायफलों
और बल्लमों से मुसल्लह थे और पूर्वी पंजाब में शिकार की तलाश में जा रहे
थे ! इनमें एक के दिल में कुछ शुबहा-सा हुआ ! उसने एक ब्राह्मण से पूछा,
‘ब्राह्मण देवता किधर जा रहे हो ?’

      ‘हरद्वार, तीर्थ करने !’


      ‘मियाँ अल्ला-अल्ला करो’ दूसरे ब्राह्मण के मुँह से निकला !


      जाट हँसा, ‘तो आओ अल्ला-अल्ला करें’ शिकार मिल गया भाई इतना कह कर

जाट ने नकली ब्राह्मण के सीने में बल्लम मारा ! दूसरे ब्राह्मण भागने लगे
! ‘ऐसे नहीं ब्राह्मण देवता, जरा डाक्टरी मुआइना कराते जाओ ! हरद्वार
जाने से पहले डाक्टरी मुआइना बहुत जरुरी है न !’

      डाक्टरी मुआइना से मुराद यह थी कि वह लोग खतना हुआ होता उसे वहीँ

मार डालते ! चारों मुसलमान जो ब्राह्मण का भेष बदलकर अपनी जान बचाने के
लिए भाग रहे थे

मार डाले गए और मैं आगे चली !


      रास्ते में एक जगह जंगल में मुझे खड़ा कर दिया गया और लोग यानी

मुहाजिरीन और सिपाही और जाट और सिख सब निकल-निकल कर जंगल की तरफ भागने
लगे ! मैंने सोचा शायद मुसलमानों की बहुत बड़ी फ़ौज उन पर हमला करने के लिए
आ रही है ! इतने में क्या देखती हूँ कि जंगल में बहुत सारे मुसलमान किसान
अपने बीबी-बच्चों को लिए छुपे बैठे हैं ! ‘सत श्री अकाल !’ और ‘हिन्दू
धर्म की जय !’ के नारों की गूंज से जंगल काँप उठा और मुसलमान किसान घेर
लिए गए ! आधे घंटे में सब सफाया हो गया ! बुड्ढे, जवान, औरतें, बच्चे सब
मार डाले गए ! एक जाट के बल्लम पर एक नन्हे से बच्चे की लाश थी और वह उसे
हवा में घुमाकर कह रहा था, ‘आयी बैसाखी आयी बैसाखी आयी बैसाखी !’

      जलंधर से उधर पठानों का एक गाँव था ! यहाँ पर गाड़ी रोककर लोग गाँव

में घुस गए ! सिपाही शरणार्थी और जाट ! पठानों ने मुकाबिला किया ! लेकिन
आखिर में मारे गए ! बच्चे और मर्द हलाल हो गए तो औरतों की बारी आयी ! और
वहीँ उसी खुले मैदान में जहाँ गेंहूँ के खलिहान लगाये जाते थे और सरसों
के फूल मुस्कराते थे और पतिव्रता स्त्रियाँ अपने पतियों की प्राणयातुर
आँखों के आगे कमजोर शाखों की तरह झुक-झुक जाती थीं, उसी लम्बे चौड़े मैदान
में जहाँ पंजाब के दिल ने हीर-रांझे और सोनी-महिवाल के अमर प्रेम के
तराने गाये थे, उन्हीं शीशम और पीपल के दरख्तों के तले वक्ती चकले आबाद
हुए ! पचास औरतें और पांच सौ खाविन्द ! पचास भेंडें और पांच सौ कसाई !
पचास सोहनियाँ और पांच सौ महीवाल ! शायद अब चेनाब में कभी बाढ़ नहीं आयेगी
! शायद अब कोई वारिसशाह की हीर न गायेगा ! शायद अब मिर्ज़ा साहबान की
दस्तानेउल्फ़त इस मैदान में कभी न गूंजेंगी ! लाखों बार लानत हो उन
रहनुमाओं पर और उनकी आइन्दा सात नस्लों पर जिन्होंने इस खुबसूरत पंजाब,
इस अलबेले प्यारे, सुनहरे पंजाब के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे और उसकी पाकीज़ा
रूह को गहना दिया था और उसके मजबूत जिस्म में नफ़रत की पीप भर दी थी ! आज
पंजाब मर गया था ! उसकी जबान गूंगी हो गयी थी, उसके गीत मुर्दा, उसका
बेबाक निडर भोला-भाला दिल मुर्दा; और न महसूस करते हुए और आँख और कान न
रखते हुए भी मैंने पंजाब की मौत देखी ! खौफ और दहशत से मेरे कदम उसी पटरी
पर रुक गए !

      पठान मर्दों और औरतों की लाशें उठाये जाट सिख और डोगरे और सरहदी

हिन्दू वापस आए और मैं आगे चली ! आगे एक नाहर आती थी ! जार-जरा सी देर
बाद मैं रोक दी जाती थी ! ज्यों ही कोई डिब्बा नहर के पुल पर से गुजरता
लाशों को नीचे नहर के पानी में गिरा दिया जाता ! इस तरह जब हर डिब्बे के
बाद सब लाशें पानी में गिरा दी गयीं तो लोगों ने देशी शराब की बोतलें
खोलीं और मैं खून और शराब और नफ़रत की भाप उगलती हुई आगे बढ़ी !

      लुधियाने पहुँचकर लुटेरे गाड़ी से उतर गए ! और शहर में जाकर

उन्होंने मुसलमानों के मुहल्लों का पता ढूढ़ निकाला और वहाँ हमला किया और
लूट-मार की और मेल गनीमत अपने काँधों पर लादे हुए तीन चार घन्टों के बाद
लौट आये ! जब तक लूट मार न हो चुकती, जब तक दस-बीस मुसलमानों का खून न बह
जाता, जब तक सब शरणार्थी अपनी नफ़रत की प्यास न बुझा लेते, मेरा आगे बढ़ना
दुश्वार क्या नामुमकिन था ! मेरी रूह में इतने घाव थे और मेरे जिस्म का
जर्रा-जर्रा गंदे नापाक खूनियों के कहकहों से इस तरह रच गया था कि मुझे
गुस्ल की सख्त जरुरत हो रही थी ! लेकिन मुझे मालूम था कि इस सफ़र में कोई
मुझे नहाने न देगा !

      अम्बाला स्टेशन पर रात के वक्त मेरे फर्स्टक्लास के डिब्बे में एक

मुसलमान डिप्टी कमिश्नर और उनके बीबी बच्चे सवार हुए ! इस डिब्बे में एक
सरदार साहब और उनकी बीबी भी थी ! फौजियों के पहरे में मुसलमान डिप्टी
कमिश्नर को गाड़ी में सवार कराया गया ! और फौजियों को उनकी जानो-माल की
सलामती के लिए सख्त ताकीद कर दी गयी ! रात के दो बजे मैं अम्बाले से चली
और दस मील आगे जाकर रोक दी गयी ! फर्स्टक्लास का डिब्बा अन्दर से बंद था
इसलिए खिड़की के शीशे तोड़कर लोग अन्दर गए ! डिप्टी कमिश्नर और उसकी बीबी
और उसके छोटे-छोटे बच्चों को क़त्ल किया गया ! डिप्टी कमिश्नर के एक
नौजवान लड़की थी और बड़ी खूबसूरत ! किसी कॉलेज में पढ़ती थी ! दो एक नौजवान
ने सोचा ऐसे बचा लिया जाय ! यह हुस्न, यह ताजगी, यह जवानी किसी के काम आ
सकती है ! इतना सोचकर उन्होंने जल्दी से लड़की और जेवरात के बक्स को
संभाला और गाड़ी से उतरकर जंगल में चले गए ! लड़की के हाथ में एक किताब थी
! यहाँ यह कांफ्रेंस शुरू हुई लड़की को छोड़ दिया जाय या मार डाला जाय !

      लड़की ने कहा, ‘मुझे मारते क्यों हो ? मुझे हिन्दू कर लो ! मैं

तुम्हारे मज़हब में शामिल हो जाती हूँ ! तुममें से कोई एक मुझसे ब्याह कर
ले ! मेरी जान लेने से फायदा ?’

      ‘ठीक तो कहती है’ एक बोला !


      ‘मेरे ख्याल में............’


      दूसरे ने बात काटते हुए और लड़की के पेट में छुरा भोंकते हुए कहा,

‘मेरे ख्याल में तो इसे ख़त्म कर देना ही बेहतर है ! चलो गाड़ी में वापस
चलो ! क्या कांफ्रेंस लगा रखी है तुमने !’

      लड़की जंगल में घास के फ़र्श पर तड़प-तड़प कर मर गयी ! उसकी किताब उसके

खून से तरबतर हो गयी ! किताब का नाम था Socialism – Theory and practice.
By John Strachey.  वह जहीन लड़की होगी, उसके दिल में मुल्क और कौम की
ख़िदमत के इरादे होंगे, उसकी रूह में किसी से मुहब्बत करने, किसी को
चाहने, किसी के गले लग जाने, किसी बच्चे को दूध पिलाने का जज्बा होगा !
वह लड़की थी, माँ थी, बीबी थी, प्रेयसी थी- वह विश्व में सृष्टि का पवित्र
रहस्य थी ! और अब उसकी लाश जंगल में पड़ी थी और गीदड़ और गिद्ध और कौवे
उसकी लाश को नोंचकर खायेंगे !

      ‘सोशलिज्म: ‘सिद्धांत और प्रयोग’ – वहशी दरिन्दे इन्हें नोच-नोच कर

खा रहे थे और कोई नहीं बोलता, कोई आगे नहीं बढ़ता ! और कोई इन्कलाब का
दरवाजा नहीं खोलता ! और मैं रात की निस्तब्धता में आग और शरारों को
छिपाये आगे बढ़ रही हूँ और मेरे डिब्बों में लोग शराब पी रहे हैं और
महात्मा गांधी की जयकारें बोल रहे हैं !

      एक अरसे के बाद मैं बम्बई वापस आई हूँ, यहाँ मुझे नहला-धुलाकर शेड

में खड़ा कर दिया गया है ! मेरे डिब्बे में अब शराब के भभके नहीं है, खून
छींटे नहीं हैं, बहशी खूनी कहकहे नहीं हैं मगर रात की तनहाई में जैसे भूत
जग उठते है ! मुर्दा रूहें बेदार हो जाती हैं और जख्मियों की चीखें और
औरतों के बैन और बच्चों की पुकार हर तरफ फ़िज़ा में गूंजने लगती है और मैं
चाहती हूँ कि मुझे कभी कोई उस सफ़र पर न ले जाये ! मैं इस शेड से बाहर
नहीं निकलना चाहती ! मैं इस खौफ़नाक सफ़र पर दुबारा नहीं जाना चाहती ! अब
मैं उस वक्त जाऊंगी जब मेरे सफ़र में दोतरफा सुनहले गेंहू के खलिहान
लगेंगे और सरसों के फूल झूम-झूम कर पंजाब के रसीले उल्फ़त भरे गीत गायेंगे
! और किसान, हिन्दू और मुसलमान दोनों मिलकर खेत काटेंगे, बीज बोयेंगे और
उनके दिलों में स्नेह-मैत्री और आँखों में शर्म और रूहों में औरतों के
लिए प्यार और मुहब्बत और इज्जत का जज्बा होगा !

      मैं लकड़ी की एक बेजान गाड़ी हूँ लेकिन फिर भी मैं चाहती हूँ कि इस

खून और गोश्त और नफ़रत का बोझ मुझ पर न लादा जाय !मैं दुर्भिक्ष-पीड़ित
इलाकों में अनाज ढोऊंगी ! मैं कोयला और तेल और लोहा लेकर कारखानों में
जाऊंगी ! मैं किसानों के लिए नये हल और नयी खाद जुटाऊँगी ! मैं अपने
डिबों में किसानों और मजदूरों की खुशहाल टोलियाँ लेकर जाऊंगी और पतिव्रता
स्त्रियों की मीठी निगाहें अपने मर्दों का दिल रही होंगी और उनके आँचलों
में नन्हे-मुन्ने बच्चों के, खूबसूरत बच्चों के चेहरे कमल के फूलों की
तरह खिले नज़र आयेंगे ! और वह इस मौत को नहीं, बल्कि आनेवाली जिन्दगी को
झुककर सलाम करेंगे जब न कोई हिन्दू होगा, न मुसलमान होगा, बल्कि सब मजदूर
होंगे और इन्सान होंगे !
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जन्म शताब्दी पर विशेष

कृशन चंदर

Krishan Chandar

जन्म: 23 नवम्बर, 1914

मृत्यु: 8 मार्च, 1977


कृष्ण चंदर ने लगभग 80 पुस्तकें लिखीं। कथा साहित्य में निम्नलिखित

पुस्तकों का ज़िक्र करना आवश्यक है.

उपन्यास : एक गधे की आत्मकथा, एक वायलिन समुंदर के किनारे, एक गधा नेफ़ा

में, तूफ़ान की कलियाँ, कार्निवाल, तूफ़ान की कलियाँ, एक गधे की वापसी,
गद्दार, सपनों का क़ैदी, सफ़ेद फूल, तूफ़ान की कलियाँ, प्यास, यादों के
चिनार, मिट्टी के सनम, रेत का महल, कागज़ की नाव, चाँदी का घाव दिल, दौलत
और दुनिया, प्यासी धरती प्यासे लोग, पराजय, जामुन का पेड़

इनके कहानी संग्रह - नज्जारे, जन्दगी के मोड पर, टूटे हुए तारे,

अन्नदाता, तीन गुंडे, समुन्द्र दूर है, अजन्ता से आगे, हम वहशी हैं, मैं
इंतजार करूँगा, दिल किसी का दोस्त नहीं, किताब का कफन, तिलस्मे ख्याल
वगैरह हैं। 'तिलस्मे ख्याल' इनका वह कहानी संग्रह है जिसे लोगों ने बहुत
पसन्द किया।

कृष्ण चंदर उच्च कोटि के लेखक हैं। आधुनिक सामाजिक स्थिति में वर्गों की

विभिन्नता, जनता की आर्थिक दुर्दशा, प्रबन्धकों के अत्याचार और
पूँजीपतियों की लूटमार देखकर उनका कलम विष में डूबकर चलता है। जनता के
प्रति सच्चा प्रेम, मानव के भविष्य पर विश्वास और अत्याचार के विरुद्ध
आवाज़ उठाना ही उनकी कहानियों का मुख्य विषय रहा है।

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